भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ट्रेन की खिड़की से / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ट्रेन की खि‍डकी से
पहाड
देख रहा हूं मैं
छोटे-छोटे कई खडे हैं सामने
जिनकी पृष्ठभूमि के ढालवें मैदान में
बच्चे फुटबॉल खेल रहे हैं

केसी-कैसी शक्लें हैं इनकी
सीधा खडा है कोई स्तूप सा
मंदिर सा तराश लिए है कोई
एक की कमर पर
उकडूं बैठी है बडी सी चट्टान

मे‍ढकी सी टिकी है पिछले तलुओं पर
मानों उछाल लेगी उुपर को अभी ही

यह उसकी अपनी मुद्रा है
समय जब भी उछालेगा
उसे नीचे उछालेगा
नीचे फुटबॉल खेलते बच्चों के कदमों में ।
1992