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ठंड लग
रही है मुझे
वसन्त पारदर्शी है
पित्रोपोल पहन रहा है
रोंएदार हरे वस्त्र
छत्रिक-माछ-सी फिसल रही हैं
निवा नदी की लहरें
धीरे-धीरे
घेर रही हैं मेरे मन को
नदी के उस तट पर
प्रकाश छलकाती दौड़ रही हैं मोटरें
जैसे उड़ रहे हों
लौह-गुबरैले और पतंगे
आकाश में
स्वर्ण-बकसुए से
झिलमिला रहे हैं सितारे
पर कैसे भी वे
ख़त्म नहीं कर पाएंगे
मरकत से भारी
इस मरकती समुद्री जल को
पित्रोपोल=लेनिनग्राद, पितेरर्बुर्ग या पीटर्सबर्ग नगर का एक साहित्यिक नाम ।
(रचनाकाल : 1916)