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ठकुराइन की सोच / लालचन्द राही
Kavita Kosh से
जनवरी के महीने में
सुबह की शीत को
ठोकर मारती हुई
कुएँ की मेड़ पर
प्राचीन संस्कृति की प्रतीक
गुलमोहरी बिन्दिया लगाए
टपरिया पर पड़ी छान-सी
तार-तार होती
ओढ़नी का पल्लू समेटे
पुराने तौलिए में
चाँद-सी ज्वार की रोटियाँ तीन
लहसुन की चटनी के साथ
युद्ध के मोर्चे पर जाती-सी वह
खुरपी उठाती है नींदने के लिए
तभी ऊनी शालधारी
ठकुराइन पूछती है—
तुझे ठंड नहीं लगती?
'लहसुन की चटनी खाने वालों को
ठंड नहीं लगती माँ।'
आत्मविश्वास से सना उत्तर पाते ही
ठकुराइन कहती है—
'तभी मैं सोचती हूँ
लहसुन और मिर्च इतने महँगे क्यों हैं?'