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ठण्डी हवाओं के झोंके / महेश सन्तोषी

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आये, फिर आये, बड़े पीछे से आये,
कुछ ठण्डी हवाओं के झोंके!
बयार प्यार की है, रह-रह कर अब भी बहती है,
दो प्राणों में होके!

शायद एक शाश्वत वसन्त-सा होता है प्यार,
हमने देखे हैं हर मौसम में, हरसिंगार बरसते।
बदन से मानो गुँथ ही गये हों, कई रंगों के गुलाब,
ज़िन्दगी बार-बार गुजरती है बीच से, फूलों के, खेतों के।

बड़ा दिन था वह,
कोई बड़ी बात थी, जब हमने बिठा लिया था
तुम्हें सारी साँसों में पिरो के!
कुछ ठण्डी हवाओं के झोंके!

जिन अथाहों को हम छू न सके
ओंठ जिसे पी-पीकर नहीं थके।
इन प्राणों से अनवरत झरता तो है कोई अमृत;
फिर वह किसी सत्य की उपासना हो या भावनाओं की पूजा भर,
हमने एक दिन ले लिया था, जीवन भर को, प्यार का व्रत।

अब हवाओं ने भी हमें छू के, परख के देख लिया,
कोई बैठा तो है नीचे,
वर्षों से प्राणों की परतों के!
कुछ ठण्डी हवाओं के झोंके!