ठण्ड का एक दिन / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
कंचट<ref>कनपट या कनपटी।</ref> के भीतर कहीं
भाप उड़ रही है किसी चीज़ की सालों...से
सोचना
विलास है
कला है
अथवा यातना?
सोच रही हूँ
लेकिन कहाँ है सोचने के लिए भी फुरसत !
और सभी बातें ताला मारकर
कंचट के भीतर की ही जुलुस खाने में
पहुँचना है ठिठुरती कक्षा में
और किसी महान व्यक्ति का उद्गार जैसा
दुहराना है वर्णविन्यास का नियम
छात्राएँ
बहुत अरुचिपूर्वक देखेंगी मुझे
अपनी पुर्जें की आँखों से
और आलसपूर्वक लिखेंगी लगातार
चिन्हों का रफ्फू जैसा व्याकरण
कलेजे तक पहुँचकर खरोंचनेवाली शीतलहर है रास्ते में
सड़क-भर तैनात है कोहरे की घनी परेड
वृक्ष है ओस से सर्वांग भीगे हुए
चिडि़या हैं युद्धबन्दी जैसे उकड़ूँ बैठे
काम में जा रहे हैं लोग ठिठुरते हुए
हफ़्तों से
किसी कारागार जैसा बन गया है यह शहर
और लोग
ताकते हुए जैसे बन्दीगृह के लौह दिवार से
बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे हैं
धूप की नरम सवारी को
जैसे कि खुलने को है कोई जादुई दरवाज़ा
चल रही हूँ रास्ते में ठिहरती हुई
और सोच रही हूँ
क्यों धोखोबाज हो गए
कन्धे पे धूप लेकर आने की प्रतिज्ञा करके गए हुए
आँधी जैसे लोग?
इस राज्य के लिए सबसे अराजक काम है सोचना
लेकिन देश के शासकों को मालूम है कि नहीं
इस समय सड़क में
गुत्थी पड़ा हुआ घने भाप का गुम्बज जैसा
ख़तरनाक चीज़ लेकर कंचट के भीतर
विस्फोट की तैयारी में चल रहा है
एक मामूली आदमी!
-।-।-
कंचट1 – कनपट या कनपटी।