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ठहराव तोड़ने की कोशिश में / प्रताप सहगल

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यह क्या हुआ
अचानक
क्या हुआ कि
सोने की चिड़िया
मिट्टी की हो गई.
क्या हुआ कि
जलता बल्ब बुझ गया
जम गया तारों में करण्ट
रुक गया झरनों का पानी.
क्या हुआ अचानक
कोई तो बताओ
कि पानी क्यों रुक गया
उपस्थित शिक्षाविदो !
राजनेताओ !
या न्याय के रक्षको !
मुझे जवाब दो
कि एक बर्फ से भी तेज़ ठण्डापन
पूरे देश पर क्यों छा गया.
आज जब हम पार कर आए हैं
हज़ारों दिन
कई साल
तय कर चुके हैं कई पड़ाव
फिर भी
पानी क्यों रुका हुआ है
मारने लगा है सड़ांध
और उस पानी में
सिर्फ नज़र आने लगी हैं
तैरती हुई कुर्सियां
कुर्सियों के हत्थों पर
चिपके हुए लुँज-पुँज हाथ.
बताओ क्या करूं
इन हाथों का
यह नहीं रोक सकते
तूफान का वेग
देश तो बहुत बड़ी चीज़ है.
आप कहेंगे मित्र!
खाली विरोध से कुछ नहीं होता
ना ही होता है कुछ आरोपों की रस्साकशी से
तो तुम्ही बताओ
जब करोड़ों पेट
पापड़ हो रहे हों
हड्डियों में हो गए हों सुराख
और आँखों से टपकते हों
सिर्फ सवाल
तब मेरे आरोपों के सामने
आपके आश्वासन कब तक टिकेंगे?
तोड़ना ही होगा
विचारों को खूसटपन
बेंधना होगा
ठण्डापन भाषा का
और ज़मीन की तहों को चीर कर
उठाना होगा एक नया आकाश.