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ठहरा हुआ दिखूं भले ठहरा नहीं हूँ मैं / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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ठहरा हुआ दिखूं भले ठहरा नहीं हूँ मैं
आया हूँ तैर कर मगर भीगा नहीं हूँ मैं।

उस पाक-बेनियाज़ का रहमो-करम रहा
फिसलन भरी ज़मीन पर फिसला नहीं हूँ मैं।

फ़ुर्सत मिले तो देखना आकर क़रीब से
दहका भले ज़रूर हूँ पिघला नहीं हूँ मैं।

जो हो सके न आपसे मुझको बताइये
अब भी जवान अज़्म है, बूढा नहीं हूँ मैं।

इस उम्र में भी मुझ पे ख़ुदा का करम है ये
बोझा उठा रहा अभी बोझा नहीं हूँ मैं।

क़ातिल समझ चढ़ा दिया उसको सलीब पर
वो लाख चीखता रहा, क़ातिल नहीं हूँ मैं।

टाला जवाब इसलिए कुछ बात और थी
वरना ज़बान मुंह में है गूंगा नहीं हूँ मैं।

'विश्वास' दिन को दिन ही लिखा रात रात को
पानी कभी शराब को लिखता नहीं हूँ मैं।