ठहरो तुम / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
ठहरो तुम !
देखो धारणाएँ कुंठित हो चुकी हैं
बुझ चुकी है बत्ती
घुप्प अँधेरा छा चुका है
जा चुकी है रोशनी चाँद की भी अब
सूर्य को भी मरा घोषित कर दिए हैं लोग कल की रात में
ठहरो तुम !
खदेड़कर चाँद को बस्ती से, जुगनू को
स्थापित करना चाहते हैं
नहीं भाता समय की गति
नियति सबकी यही कि
समय को साथ रखना चाहते हैं
घर रख कर छाता बादल को गाली दे रहे हैं लोग बरसात में
ठहरो तुम !
कि चलने जैसा कुछ भी नहीं है
तुम दौड़े जा रहे हो
अलानाहक लोग शक करेंगे
लौट आओ और जश्न मनाओ
तारे गुमनाम हुए हैं गीत गाओ मुक्ति का
सब बंधे हैं न बोलने की मजबूरी से मौन बैठे हैं सबके साथ में
ठहरो तुम !
मैं अभी आता हूँ घूमकर उधर से
परिवेश के हालात ठीक नहीं हैं
चोर लगातार घूम रहे हैं सिपाही के वेश में
पकड़े जा रहे हैं हंस
बगुले नृत्य कर रहे हैं ढपली बजाकर
डरे-सहमे मुर्गे बांग लगाना छोड़ चुके हैं इन दिनों प्रभात में
ठहरो तुम !
कि ठहरने जैसा कुछ भी नहीं है फिर भी
चलने की प्रक्रिया से तोबा करो
बुद्धिमानी ही नहीं है चलते रहना लगातार
ठहरना सही अर्थों में
अपने ढीले होने का सबूत देना ही नहीं है
समय के साथ सामंजस्य बिठाना भी है संग साथ में