ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम / मोमिन
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गये नाचार[1] जी से हम
हँसते जो देखते हैं किसी को किसी से हम
मुँह देख-देख रोते हैं किस बेकसी से हम
उस कू में जा मरेंगे मदद ऐ हुजूमे-शौक़[2]
आज और ज़ोर करते हैं बेताक़ती से हम
साहब ने इस ग़ुलाम को आज़ाद कर दिया
लो बन्दगी कि छूट गए बन्दगी[3]से हम
बे-रोये मिस्ले-अब्र[4] न निकला ग़ुबारे-दिल[5]
कहते थे उनको बर्क़े-तबस्सुम[6] हँसी से हम
मुँह देखने से पहले भी किस दिन वह साफ़ थे
बे-वजह क्यों ग़ुबार[7] रखें आरसी[8] से हम
है छेड़ इख़्तलात[9] भी ग़ैरों के सामने
हँसने के बदले रोयें न क्यों गुदगुदी से हम
क्या दिल को ले गया कोई बेग़ाना-अश्ना[10]
क्यों अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम
इन नातवानियों[11] पे भी थे ख़ारे-राहे-ग़ैर[12]
क्योंकर निकाले जाते न उसकी गली से हम