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ठुट्ठ गाछ / मन्त्रेश्वर झा

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एक समय अबैत छैक जखन
मनुक्खो भऽ जाइत अछि ठुट्ठ।
जरैत, तपैत, स्वयं रौद सहैत
ने फल, ने फूल, ने डारि ने पात
बिसरि जाइत अछि जे ओहो कहियो दैत छल छाह
अपने रौद सहैत।
नहि बचैत छैक एक्को टा ठाढ़ि
जकरा तोड़ि क्यो कऽ सकय दतमनि
ओकरा जड़िमे भऽ जाइत छैक धोधरि
चुट्टी-पिपड़ीक बास
जेना गाछ भऽ गेल हो बेड रिडेन-बेड सोर
आन गाछ सभ ओकरा देखि, करैत छैक खिधांस
जखन नचैत छैक ओकर ठाढ़ि-पात।
ठुट्ठ गाछ रहैत अछि बांचल ताधरि
जाधरि पकड़ने रहैत अछि अपन जड़ि
तखन जड़ियो दुसैत छैक ओकरा
‘घुर जो’ कथनी ले’ चूसि रहल छें धरती
गाछ भऽ जाइत अछि चिरीचोंत
ताधरि कतहु सँ अनैत छैक कोदारि
ओही गाछक नवका मालिक
कोड़ैत छैक ओकर जड़ि, काटैछ ओकर धर
चीरैत छैक ओकर जारनि।