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ठूंठ जो ठहरा / सांवर दइया
Kavita Kosh से
हर आती रूत लाई
अपने संग रंग नए
पर यह जस-का-तस रहा
आजू-बाजू कहीं
कोंपलें फूटीं
कलियां चटकी
फूल खिले
यहां –वहां
भौंरे गुनगुनाए
हर तरफ
हवाएं बहकी
पर
टस-से-मस न हुआ
यह मेरा मन
ठूंठ जो ठहरा !