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ठोकरें खाती है संभलती है / रविकांत अनमोल
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ठोकरें खाती है संभलती है
ज़िन्दगी रास्तों पे पलती है
उम्र भर आदमी को छ्लती है
ज़िन्दगी मौत बन के टलती है
कौन अहले-ख़िरद को समझाए
शqअ-ए-दिल आँधियों में जलती है
मौत कुछ दूर तो नहीं हमसे
हर घड़ी साथ-साथ चलती है
जाने उसको मिले है क्या इसमें
फूल कितने कज़ा मसलती है