ठौर-ठगी सी ठाड़ी दुनिया देखत है
काल खिलाड़ी खेल नए नित खेलत है
सौदागर के ठाठ निराले को बरनै
हीरा कह कैं काँच खुले में बेचत है
मौजी मनुआ परमारथ की माला पै
आठ पहर स्वारथ के मनका फेरत है
झूठ कहौ तौ आँख लजावत है अपनी
साँच कहौ तो झूठौ आँख नटेरत है
कौन सुनै फरियाद उजेरौ कौन करै
महलन कौ अंधेर मढ़ैया झेलत है