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डरने लगा है आकाश / संतोष श्रीवास्तव

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मैं ढूँढ रही हूँ
अपना आकाश
जो मुझ में जीता था
वह मुझे आश्वासन देता था
कि समेट लेगा मुझे
अपने वितान में
देगा ताप सूरज का
मेरी ठंडी जड़
आकांक्षाओं को
एक रुपहली रात भी
जिसमें लगेंगे
ख्वाबों को पर

लेकिन वह घबराकर छुप गया
शायद यह सोच कर
कि ख्वाबों को पर लगेंगे
तो वे उड़ेंगे और छू लेंगे उसे
जबकि उसे रहना है सबसे ऊँचा

सबसे ऊँचा रहने की चाह में
अक्सर खो जाती है पहचान
उलझन बनकर
रह जाता है अस्तित्व
सोचती हूँ
स्वप्नदंश की पीड़ा से
क्या डरने लगा है आकाश?