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डराबै छै / कस्तूरी झा 'कोकिल'

Kavita Kosh से
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अकेलॅ जानीं केॅ जाड़ाँ डराबै छै।
रोज-रोज रही-रही पछिया बहाबै।
तोरा रंग सुनगै तै केॅ?
बोलॅ नीं घूरा।
साँझ भोर सट्टी केॅ
मारै छै हूरा
दौड़ी केॅ अयतै के? समुझनैं आबै छै।
अकेलॅ जानीं केॅ जाड़ाँ डराबै छै।
गपशप में बीतै छेलै
छोटॅसन दिन।
दूगो रेजाई में
रातोॅ सुख निन।
आबेॅ अकेलाँ में हाड़ो कपाबै छै।
रोज-रोज रही-रही पछिया बहाबै छै।
आँखीं मेॅ राखी केॅ
सूतै छीहौॅ रात केॅ।
केकरा सेॅ कहबै जी
दिलॅ रॅ बात केॅ।
बड़की गो रात केॅ सपना जगाबै छै।
अकेलॅ जानीं केॅ जाड़ाँ डराबै छै।
रोज-रोज रही-रही पछिया बहाबै छै।

03/12/15 रात्रि पौनें आठ