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डरा के मौज ओ तलातुम से हम-नशीनों को / मजरूह सुल्तानपुरी
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डरा के मौज-ओ-तलातुम से हमनशीनों को
यही तो हैं जो डुबोया किए सफ़ीनों को
शराब हो ही गई है बक़द्रे-पैमाना
ब-अ़ज़्मे-तर्क निचोड़ा जो आस्तीनों को
जमाले-सुबह दिया रू-ए-नौबहार दिया
मेरी निग़ाह भी देता ख़ुदा हसीनों को
हमारी राह में आए हज़ार मैख़ाने
भुला सके न मगर होश के क़रीनों को
कभी नज़र भी उठाई न सू-ए-बादा-ए-नाब
कभी चढ़ा गए पिघला के आबगीनों को
हुए है क़ाफ़िले जुल्मत की वादियों में रवाँ
चिराग़े राह किए ख़ूंचका जबीनों को
तुझे न माने कोई तुझको इससे क्या 'मजरूह'
चल अपनी राह, भटकने दे नुक़्ताचीनों को