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डरा सहमा हुआ सा हर बशर है / सिया सचदेव

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मैं अपनी ज़िंदगी की तल्ख़ यादें
सिरे से भूल जाना चाहती हूँ
किसी के हिज्र में रोई बहुत थी
मगर अब मुस्कुराना चाहती हूँ
मैं सब कुछ भूल जाना चाहती हूँ

मैं समझी जिसको चाहत ज़िंदगी की
उसी ने मुझसे ऐसी दिल्लगी की
मैं उसके, वो मेरे क़ाबिल नहीं था
के इस रिश्ते में कुछ हासिल नहीं था
निजात उस ग़म से पाना चाहती हूँ
मैं सब कुछ भूल जाना चाहती हूँ

ख़बर पहले से ही ये काश होती
के वो लफ्जों से ही बस खेलता है
मेरा दिल भी शिकार उसका नया है
वो शातिर है वो ताजिर है यक़ीनन
वो दिल छलने में माहिर है यक़ीनन
सबक उसको सिखाना चाहती हूँ
मैं सब कुछ भूल जाना चाहती हूँ

न होंगे रायगां अब मेरे जज़बे
न पीछा अब करेंगे ये अँधेरे
नया सूरज निकल कर आएगा फिर
नयी इक सुब्ह लेकर आएगा फिर
उजालों को मैं पाना चाहती हूँ
मैं अपनों से निभाना चाहती हूँ
मैं सब कुछ भूल जाना चाहतीहूँ