भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डरे हुए लोग / सुभाष राय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लोग डरे हुए हैं आजकल
उन लोगों से भी, जिनके साथ बड़े हुए हैं
जिनके साथ कई पीढ़ियों से
खुशियाँ मनाई हैं, दुख बाँटे हैं

उन रास्तों से भी, जिन पर
चलते आए हैं सदियों से
बग़ैर किसी दुर्घटना के

उन दोस्तों से भी, जिन्होंने
बार-बार निभाए हैं अपने वादे
बाहर निकाला है हर बार कातरता और
निरुपायता के घातक चक्रव्यूह से

लोग डरे हुए हैं अपने
सगे-सम्बन्धियों, अपनी छायाओं से भी
ख़ुद ही ख़ुद का पीछा करते हुए

पता नहीं कब कौन पाला बदल ले
कन्धे पर रखे हाथ कब गले तक पहुँच जाएँ

पत्नी, बच्चे जब बहुत ख़ुश होते हैं
डरा देते हैं भीतर तक
कितनी देर रह पाएगी यह ख़ुशी
बच्चा दौड़ता हुआ आता है
चिपक जाता है, ज़ोर से खिलखिलाता है
डर लगता है, पास होने की यह आश्वस्ति
कब तक रहेगी बरक़रार

सड़क पर, बाज़ार में, मेले में
मिल जाते हैं कभी-कभी पुराने बिछड़े साथी
यादें जाग उठती हैं रोमाँचित करती हुई
अन्देशे से ठिठक जाता है मन
कब तक खिली रहेगी ये ख़ुशी यूँ ही

डरे हुए लोग प्रेम नहीं कर पाते
हँस नहीं पाते खुलकर
किसी को गले नहीं लगा पाते
डरे हुए लोग सोते हुए भी सोते नहीं
जागते हुए भी जागते नहीं

वे उजाले में दाख़िल होने से घबड़ाते हैं
अन्धेरे में अपने ही पाँवों में बन्धे पडे़ रहते हैं चुपचाप
जँगल पार करने की सोचते नहीं
बाढ़ का सामना नहीं करते
आन्धी-पानी में घर से नहीं निकलते

डरे हुए लोगों के हृदय में
धड़कती रहती हैं खौफ़नाक आशंकाएँ

आजकल कुछ भी बदलता है तो डरा देता है
वह मिट्टी हो, हवा हो, धूप हो
या अपने ही बग़ीचे में खिला हुआ फूल
डर किसी भी रँग, स्वाद, गन्ध और रूप के
आवरण में आ सकता है

कोई डर ही होगा इस डर के पीछे
उससे दो-दो हाथ करने की जगह
ख़ुद से ही लड़ रहे हैं डरे हुए लोग
डरने के अलावा कुछ नहीं कर रहे डरे हुए लोग