डरो ऐसे समय में ! / बोधिसत्व
गीतकार, बड़े भाई यश मालवीय के लिए
मैं आत्मनिर्भर रुलाइयों से
घिर गया हूँ
हमारे समय की रुलाइयाँ भी
दूसरी अनेक रुलाइओं से गुँथी हुई
भटक रही हैं चतुर्दिक !
अलग-थलग पड़ी रुलाइयाँ
घुलकर एक हो जाती हैं
मुझ तक आते आते !
जैसे हर पेड़ एक जंगल होता है
और हर बूंद एक समुद्र
हर कँकड़ एक पर्वत
वैसे ही हर यातना एक रुलाई है ।
वे मूक रुलाइयाँ अपना होना सिद्ध
करने के लिए छटपटाती विकल हैं !
तुम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते
लेकिन तुम उनको सुनकर
उसका अर्थ खोज सकते हो ।
वह सबसे घातक समय होता है
जब यातनाओं की व्याख्या बन्द हो जाती है
जब यातना को आनन्द का विषय घोषित कर दिया जाता है और
रोने वाली बात पर लोग ताली बजाने लगते हैं !
डरो ऐसे समय में
डरो ऐसे समाज से
कभी कभी डरना चाहिए ।
जो कहते हैं कि वे नहीं डरते
वे झूठ बोलते हैं ?
पृथ्वी पर
कोई रुलाई अर्थहीन नहीं होती
उसके मायने न निकालने वाले भी ठीक से समझते हैं रुलाई के मायने ।
जब वह न सुनी जाए तो
उसके साथ तिल-तिल कर
नमक के खेत में बदल जाता है आकाश ।
जब रुलाई न समझी जाए तो
पुष्पक विमानों को गुलेल से
गिरा देने वाले बच्चे और
रुलाई को गीत में ढाल देने वाली
बच्चियाँ जन्म लेती हैं !