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डरौना / अज्ञेय
Kavita Kosh से
चिथड़े-चिथड़े
टँगा डरौना
खेत में
ढलते दिन की
लम्बी छाया
छुई-
कि बदला
जीते प्रेत में।
घिरी साँझ
मैं गिरा
अँधेरी खोह-
यादें-
लपका
बटमारों का एक गिरोह!
शरण वह
प्रेत डरौना
चिथड़े-चिथड़े।
नयी दिल्ली, 8 नवम्बर, 1979