भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डर लगता है / गरिमा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन अनचाहे बदलावों से
डर लगता है

हम अपने कंफ़र्ट ज़ोन को त्यागें कैसे
सीधी पटरी छोड़ वक्र पर भागें कैसे
छिल जायेंगे घुटने ठोकर अगर लगी तो
हमें अभी भावी घावों से
डर लगता है

साँचों में ढलने से पहले गलना होगा
नये रूप में अब तो हमको ढलना होगा
बदली सूरत क्या पहचानेंगे खुद ही हम
दर्पण के हावों-भावों से
डर लगता है

मन बच्चा बन, पैर पटकता, बाल नोंचता
है जड़त्व से रुका हुआ मन नहीं सरकता
कब, क्यों, कैसे, कहाँ, अगर औ मगर सताते
बहकावों से, अलगावों से
डर लगता है

रहा प्रकृति का नियम सदा परिवर्तित होना
वही बचा जिसने सीखा अनुकूलित होना
रुका हुआ जल तालाबों का गँदलाता है
जीवन को इन ठहरावों से
डर लगता है