भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डर लगता है / शकुन्त माथुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मधु से भरे हुए मणि-घट को
ख़ाली करते डर लगता है।

जिसमें सारा सिन्धु समाया
मेरे छोटे जीवन-भर का
दूजे बर्तन में उँड़ेलते
एक बून्द भी छिटक न जाए
कहीं बीच में टूट न जाए
छूने भर से जी कँपता है।

इस धरणी की प्यासी आँखें
लगीं इसी की ओर एकटक
आई जग में सुधा कहाँ से
जल का भी तो काल पड़ा है।

प्राण बिना मिट्टी-सा यह तन
भार उठाऊँ इसका कैसे
छोड़ नहीं पाती फिर भी तो
ज़रा उठाते जी हिलता है।

तन गरमाया दुख लपटों से
धीरे-धीरे जला जा रहा
अभी बहुत बाक़ी जलने को
घट में मेरी पड़ी दरारें
साहस आज दूर भगता है।

मधु से भरे मणि-घट को
ख़ाली करते डर लगता है।