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डर / प्रियदर्शन
Kavita Kosh से
डर भी होता है
कई रूपों में दबा हुआ
कई बार वह जमता-जमता ढीठ हो जाता है कुछ अमानवीय भी
और निकलता भी है उसी तरह
हमारे भीतर की बहुत सारी क्रूरताएं
हमारे डरों की ही संतान होती हैं
डर हमें कमज़ोर करता है
डर से आंख मिलाने से भी हम डरते हैं
चाहते हैं, बसा रहे हमारे भीतर, हम ही उससे बनें रहे बेख़बर
लेकिन हमारे पीछे-पीछे चलते रहते हैं हमारे डर
जिनसे बचने के लिए हम खोजते हैं कोई ईश्वर
फिर ईश्वर से डरते हैं
इसके बाद डर भी बना रहता है
ईश्वर भी बना रहता है।