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डर / लवली गोस्वामी
Kavita Kosh से
मुझे ऊँचाई से कभी डर नही लगा तब के अलावा
जब मैंने रोप-वे में डिब्बेनुमा कोठरी से
खाई के तल की गहराई देखी
पहले तो मैं सालों तक उसकी चिट्ठियाँ खोल कर पढने से डरती रही
लेकिन फिर एक दिन मैंने खतों में लिखे शब्द खुरचकर निकाले
उन्हें भिगोया और एक गमले में बो दिया
उनमें अंकुर फूटे
वैजयंती मोती जैसे चमकीले बूटे फले
तब मैं यह रहस्य समझी
कि शिव के आँसू पेड़ पर कैसे लगते हैं
पनीली चमक लिए
इन मोतियों को कविता में पिरोते
दुःख की अतल खाई को मैंने
आकाश में बदलते देखा
वे चिट्ठियाँ सफ़ेद पंखों की शक़्ल में
मेरे कंधों पर उग आयीं
फिर कभी मुझे रोप वे की कोठरी से नीचे
खाई का तल देखने पर भय नहीं महसूस हुआ।