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डर / श्रीप्रकाश शुक्ल
Kavita Kosh से
बहुत ताक़त बहुत डर पैदा करती है
जो बहुत ताक़तवर होता है
डरा होता है!
बहुत ताक़त का होना असल में
बहुत के शोषण से सम्भव होता है
और यह शोषण ही बहुत ताक़त के तकिए के नीचे दबा होता है
जो डराता रहता हैं
डरने का मुँह हमेशा एक सुरंग की ओर खुलता है
जिसमें बचे रहने की आशा से अधिक
बचाए रखने की निराशा होती है
यह नहीं है कोई साधारण क्रिया
इसकी नाभि में ही अतिरिक्त का आकर्षण है
जो रह-रह कर परेशान करता है !