भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डलिया भर सुख / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
हमने कब मॉंगा है
डलिया भर सुख
चुटकी भर खुशबु जो
बो लेते
थोड़ा-सा हॅंस लेते
रो लेते
दरपन को दिखलाते
हम अपना मुख
राहों में ऑधी है
कॉंटे हैं
हिस्से में गालों पर
चॉंटे हैं
फिर भी तो मोड़ा है
ऑंधी का रूख
एक पंख पांखी का
तोड़ा है
उड़ने को दुनिया ने छोड़ा है
हॅंस हॅंस के काटा है
पर्वत-सा दुख