भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डांखळा 3 / गणपति प्रकाश माथुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नाम हो ‘छगन सिंग’ बीं’रो गाम हो ‘तिड़ोकी’।
सै’र आयो, हाजत होगी, जाणो चावै दोकी।।
ऊंचो नीचो होवण लाग्यो।
ठाई जाग्यां जोवण लाग्यो।।
भरी धोतड़ी दीसी जणा, सामै पुलिस चोकी।।

नाजम बण ‘टण्डन जी’ आया ओनेस्टी सूं रेवै।
जायज तुरत निकाळै, नाजायज कागज धर लेवै।।
पेसकार बापड़ो।
केवण लाग्यो आगड़ो।।
अड़वो सो उभ्यो दुस्मीं, खावै न खावण देवै।।

देख सांप नै उ’डर कागो पूग्यो बीरै सामै।
पूछ्यो कांई होग्यो आ’लै कम दी’सो बिलां में।।
सरप उसांस’र बोल्यो सुण।
म्हानै लाडी पूछै कुण।।
रैबा लाग्या मिनख’ई, सांप बण’र आस्तीनां मैं।