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डायरी में / नरेश अग्रवाल

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आज चारों तरफ कितना खाली है
कहीं भी जा सकता हूं मैं आसानी से
कितना तरल हो गया हूं मैं
कि किसी लैम्प की रोशनी भी मुझे नहीं रोकती
न ही ये पैदल सवार या गाडिय़ां
सभी से जैसे भिन्न हूं मैं
सडक़ पर पानी की तरह बहता हुआ
कोई खुशी छू चुकी थी मुझे कभी की
अब मुझे उसका पता चला,
एक नशा सा पूरे शरीर में
मन करता है इसे बस संभाले रहूं
इसी में डूबा रहूं
रुकता हूं तो बस सारे सोच बंद
सपनों की सवारी से बाहर आ गया हूं जैसे
लिख सकता हूं आज की रात मैं यही बात
सोने से पहले
अपनी इन डायरी के पन्ने में।