डायरी / अनिता मंडा
मैं एक लड़की की डायरी हूँ जिसे रद्दी में से एक नौजवान ने पढ़ने के लिए उठाया था
चलती ट्रेन में वो आसपास को भूल
हर्फ़ों के समुंदर में डूब गया था
प्रेमिका का फोन न आता तो उसका स्टेशन पीछे छूट गया होता
फोन सुनते हुए डायरी छूट गई वहीं
एक लड़की ने पढ़ते हुए आसपास नज़रें घुमाई और अपनी देह के घाव ढक लिए अपने दुपट्टे से.
एक वृद्ध ने काँपते हाथों से पलटे उसके पन्ने
उसकी आँखों में पानी के बीच तैर आई अपनी बेटी की तस्वीर
कितना ही सफ़र कर मैं एक पागल के हाथ लगी
हाँ यही कहते थे उसे सब
सुबह से शाम चक्कर लगाता था रेलवे स्टेशन के
सब मुझे पढ़ रोये थे
सिर्फ वही हँसा था
सिर्फ़ उसने ही संभाला मुझे अमानत की तरह
कागज़ की तरह नहीं
क्वाटर्स की दीवार पर से रातरानी बाहर झुकी हुई थी पूरी
चाँदनी रात में झरे हुए फूलों से सजाता मुझे
चाँद से न जाने क्या-क्या कहता
अपने सीने से लगाकर सोता
एक शीत सुबह सदा के लिए सो गया वो
सड़क पर झाड़ू लगाने वाले बूढ़े ने उस पागल की धरोहर समझ रखा मुझे अपने पास
रोज़ बड़े सवेरे झाड़ू लगाते हुए पंचम स्वर में गाता था
'पिंजरे के पँछी रे तेरा दर्द न जाने कोय'
उसकी आवाज़ सुन लोग खिड़कियाँ खोल देते थे घरों की