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डारे कं मथनि, बिसारे कं घी कौ घडा / द्विज
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डारे कं मथनि, बिसारे कं घी कौ घडा,
बिकल बगारे कं, माखन मठा मही।
भ्रमि-भ्रमि आवति, चंधा तैं सु याही मग,
प्रेम पय पूर के प्रबाहन मनौं बही॥
झुरसि गई धौं कं, का की बियोग झार,
बार-बार बिकल, बिसूरति यही-यही
ए हो ब्रजराज ! एक ग्वालिन कहूं की आज,
भोर ही तें द्वार पै पुकारति दही-दही ॥