डुकरो कौ सोच / शिवानन्द मिश्र 'बुन्देला'
भरी तलइया में उनकी भैंसे लोरें,
बैठी डुकरो सोच करें जिँदगानी कौ,
कसैं कछोटा धुतिया फटी-पुरानी कौ।
बाबुल के घर कौ सपनों
लिपो-पुतो आँगन अपनों,
पहिर पाँव में पैजनियाँ,
ठुमक-ठुमक नाची रनियाँ।
दिन भर घरघूला बनायँ दिन भर फोरें,
दिन भर बच्छा पकरें गइया ब्यानी कौ।
घर बाहर कौ ग्यान बढ़ौ,
तरुनाई कौ रंग चढ़ौ,
अब भोरो बिटिया-नहियाँ।
गदरानी पिँड़री-बहियाँ।
चढ़ैं दौर कें आमन की अमियाँ टोरे,
मैरा पै गुफना भन्नाय घुमानी कौ।
लगन-महूरत सुधवाई,
दूल्हा सँग बरात आई,
दई नें पटकी कठिन घरी,
छूटी मइया की बखरी।
रोदन की चिग्घारें धरती हिलकोरें,
सागर उमड़ परो अँखियन के पानी कौ।
दैबी छूटोँ, मठ छूटे,
गाँव गली पनघट छूटे,
छुईमुई मुरझयाय गई,
मैं ससुरारै आय गई।
मन कौं कस गई कुल-मरजादा की डारे
तनट रा कौ सासन सास भुमानी कौ।
भुनसारें जब झमक जगै,
फूलन लदी कनैर लगै,
मन उरझौ रस-रँगिया में,
तीतुर सोबैं अँगिया में।
चित्तरसारी सें उतरें निहुरें-निहुर,
चिहुँटी काट गओ राछरौ जिठानी कौ।
चैत जुन्हइया की रातें,
कन्त कन्हइया की घातें,
भरै मुरहिया कौरो में,
छूटें काट कखौरी में।
भगें, गिर परें, कोउ काउ कौं झकझोरें।
चढ़ै न उतरै, बुरऔ नसा है ज्वानी कौ।
जिदना सें जा सृष्टि चली,
कभउँ न हारो काल बली,
हमनें कितने जतन रचे,
काल झकोरन सें न बचे।
नौ लरका बिटियन सें चौंच-चौंच जोरें,
फूटौ रूप गरूर बुलबुला पानी कौ।
उड़ गई चाल मरोरा की,
हँसी बतासा-फोरा की,
माहुर विषधर करिया है,
मेंहदी बनी अँगरिया है।
कजरा काटत है अब अँखियन की कोरें,
नाती देख हँसैं पुपलौ मौं नानी कौ।
बिरधापन नें दई पटकी
फूटी माखन की मटकी,
मधुवन रहो न रस-लीला,
मठा-महेरिउ में हीला।
बेसुध बैठीं सुधियन की गाँठें छोरें,
छोड़ कन्हइया संग गओ ब्रजरानी कौ।