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डूंडो / नाव / चक्रधर बहुगुणा
Kavita Kosh से
हिरिरि, हिरिरि बगद गाड
ढलकणू छ डूंडो।
खेलेल्यो क्या धुनार?
डांड पड़यूं खूंडो॥
बौलि गैने यै छलार
नीं दिखंद वार पार।
कथैं दौं छ छांद धार
थाति नी छ खूंटो।
हिरिरि, हिरिरि बगद गाड
ढलकण छ डूंडो।
उरड़ो उठिगे अथाह,
मिटिगे सब धूप छांह,
भूलि गैने सभी थाह
बाड़, भीत, मूंडो।
हिरिरि, हिरिरि बगद गाड
ढलकणू छ डूंडो॥
लोगु की छ कच्चि आस,
तू परेख ले सहास
चलनी नी जुगेती खास
टुट-मणो न टूणो।
हिरिरि, हिरिरि बगद गाड
ढलकणू छ डूंडो॥
बढिगे! बढिगे! नयार
हे धुनार, कख छ पार?
त्वै मू अब क्या छ सर?
कनै रहण ज्यूंदो?
हिरिरि, हिरिरि बगद गाड
ढलकणू छ डूंडो॥
नीलो हँसण अकाश
ऐगे यौ औत पास,
लगीं जोर की छ ढास
रींग पड़े डूंडो
हिरिरि, हिरिरि बगद गाड
ढलकणू छ डूंडो॥
शब्दार्थ
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