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डूबते सूरज की सरगोशी / सईद अहमद
Kavita Kosh से
ढेर किरचियों के
आँख में हैं लेकिन
आईने नौहा
हर किसी क़लम की दस्तरस से बाहर
रौशनी के घर में
तीरगी का पत्थर
किस तरफ़ से आया
कौन है वो आख़िर
जो पस-ए-तमाशा मुस्कुरा रहा है
इक सवाल होती है
ज़िंदगी नगर की
सुर्ख़ियाँ ख़बर की खोजती है लेकिन
ख़्वाब के सफ़र की साअतों पे क़दग़न
सोच रहन-ए-सर है
नींद की सहर जो
क़र्या-ए-तमन्ना लूट ले गया
उस के नक़्श-ए-पा भी
चुन लिए हवा ने
मुंसिफ़ी के दाई
बे-यक़ीन मौसम बाँटते हैं घर घर
और हड्डियों के ना-तवाँ से पंजर
सुर्ख़ बत्तियों के ख़ौफ़ की सड़क पर
साइरन बजाती एक ना-गहानी
ता-अबद तआकुब
ख़त्म है कहानी