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डूबने वालो हवाओं का हुनर कैसा लगा / 'क़ैसर'-उल जाफ़री
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					डूबने वालों हवा का हुनर कैसा लगा 
ये किनारा ये समुंदर ये भँवर कैसा लगा 
पोंछते जाईये दामन से लहू माथे का 
सोचते जाईये दिवार को सर कैसा लगा 
हट गयी छाँव मगर लोग वहीँ बैठे हैं 
दश्त की धूप में जाने वो शजर कैसा लगा 
डर ओ दिवार है मैं हूँ मिरी तन्हाई है 
चांदनी रात से पूछो मीरा घर कैसा लगा 
इस से पहले कभी पोंछे थे किसी ने आंसू 
उन का दामन तुझे दीदा-ए-तर कैसा लगा 
सहल थीं मरहला-ए-तर्क-ए-वफ़ा तक राहें 
इससे आगे कोई पूछे कि सफ़र कैसा लगा 
आँख से देख लिया तर्क-ए-वतन का मंज़र 
घर जहाँ छोड़ गए थे वो खंडर कैसा लगा 
वो मुझे सुन के बड़ी देर से चुप है 'क़ैसर' 
जाने उस को मिरी ग़ज़लों का हुनर कैसा लगा
	
	