भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डोरबेल / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
कोई तमन्ना
ना किसी
आरज़ू की
आमद है
ना बहुत क़रीबी
हसरतें
ना दूर तक
कोई ज़रुरत है
ना भूली भटकी
मुंह उठाकर जो
चली आती थीं
ऐसी किसी
ख़्वाहिश की
आहट है
फिर ये
डोरबेल सा
क्या बज रहा था
अभी कानों में
फिर ये
किसकी दस्तक पे
खोला है दरवाज़ा मैंने
कहीं वो ख़्वाब
जो कल
मैं उसकी आँखों में
भूल आया था
मुझे वो
लौटाने तो नहीं
आया था
अभी तो
वक़्ती ही सही
बंद पड़े हैं
दिलके दरवाज़े
कहीं वही शख्स
डोरबेल
बजाने तो नहीं आया था॥