डोर / सुनीता शानू
एक डोर से बँधी मैं
पतंग बन गई
दूर-बहुत-दूर...
आकाश की ऊँचाइयों को नापने
सपनों की दुनिया में
उड़ती रही...
इस ओर कभी उस ओर
कभी डगमगाई
कभी सम्भली
फिर उड़ी
एक नई आशा के साथ
कि इस बार
कर ही लूँगी पार
पूरा आकाश
पा ही लूँगी
मेरा सपना
और तभी,
झटका सा लगा...
मुड़कर देखा
वह डोर
जिससे बंधी थी मैं
वह डोर
मजबूत थी
बिलकुल मेरे
उसूलों
मेरे दायरों की तरह
फिर सोचा
छोड़ दूँ
इस डोर को
आखिर कब तक बंधन सहूंगी
इन बेड़ियों का
जो उड़ने से रोकती हैं
कि सहसा
एक अन्जानी आशंका,
दाखिल हुई
एक आह सुनी
डोर तोड़ कर गिरी
एक कटी पतंग की
जो अपना
संतुलन खो बैठी थी
लूट रहे थे हज़ारों हाथ
कभी इधर,
कभी उधर
अचानक
नोच लिया उसको
कई क्रूर हाथों ने
वह कराहती रही
सच है-
डोर से बंधी होती तो
पूरा न सही
होता उसका भी अपना आकाश
और मैं लौट गई-
चरखी में लिपट गई-
डोर के साथ।