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ढँक लो और मुझे तुम / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

ढँक लो और मुझे तुम,
अपनी फूलों सी पलकों से, ढँक लो।

अनदिख आँसू में दर्पण का,
रंगों की परिभाषा,
मोह अकिंचन मणि-स्वप्नों का
मैं गन्धों की भाषा,
ढँक लो और मुझे तुम
अपने अंकुरवत अधरों से ढँक लो।

रख लो और मुझे तुम,
अपने सीपी-से अन्तर में रख लो।

अनबुझ प्यास अथिर पारद की,
मैं ही मृगजल लोभन,
कदली-वन; कपूर का पहरू
मेघों का मधु शोभन।
रख लो और मुझे तुम
अपने अनफूटे निर्झर में, रख लो।

सह लो और मुझे तुम,
अपने पावक-से प्राणों पर सह लो।

मैं हो गया रुई का सागर,
कड़वा धुआँ रसों का,
कुहरे का मक्खन अनजाना,
गीत अचेत नसों का,
सह लो और मुझे तुम,
अपने मंगल वरदानों पर सह लो।