भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढब हैं अब तो ये मालदारों के / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
ढब हैं अब तो ये मालदारों के
दुशमनों के हैं वो, न यारों के
उनके पास आके कशतियाँ डूबीं
कितने कस्से सुने किनारों के
क्या खिज़ाओं से दोस्ती कर ली ?
ढंग बदले हैं क्यों बहारों के
डोलियों की जगह है अब कारें
लद गये दिन वो अब कहारों के
किसपे कब, क्यों गिरें पता किसको
हौसले हैं जवाँ शरारों के
जंग बरबाद करके छोड़ेगी
गुलशन उजड़ेंगे अब बहारों के
कैसी दीमक लगी है रिश्तों को
रेजे ‘देवी’ हैं भाइचारों के