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ढलती नहीं कटती नहीं / विजय वाते
Kavita Kosh से
रात ये क्या रात है, ढलती नहीं, कटती नहीं|
साथ अपनी चांदनी भी, रात भर चलती नहीं|
एक छोटा शहज़ादा साथ रहता है मेरे,
एक छोटे शहज़ादे कि कमी मिटती नहीं|
हाथ फैलाकर जो माँगोगे, दुखी हो जाओगे,
मँगाने से जिंदगी क्या, मौत तक मिलाती नहीं|
सुख से मरने के लिए भी चार पैसे चाहिए,
जिंदगी तो खैर पैसो के बिना चलती नहीं|
लोग कहते हैं कि गम को गा-बजाकर कम करो,
सोचता हूँ माँ बेचारी शेर तक कहती नहीं|