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ढल जाती है नग़मों में खुद आवाज़े-महब्बत / मेला राम 'वफ़ा'
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ढल जाती है नग़मों में खुद आवाज़े-महब्बत
मिज़राब का मुहताज नहीं साज़े-महब्बत
होते हैं सर अफ्राज़ सुख़न साज़े-महब्बत
धतकार दिये जाते हैं जां-बाज़े-महब्बत
नूरी न हुए लाइके ऐजाज़े-महब्बत
खाकी ही की तफवीज़ हुआ राज़े-महब्बत
दम बाजियों पर आ गये दमसाज़े-महब्बत
अब कौन किसी को करे हम राज़े-महब्बत
ये हुस्न-ओ-महब्बत का है दिलचस्प तसादुम
तू हुस्न पे नाजां है, मुझे नाज़े-महब्बत
हर दौर में होती है अदावत अल्ह ऐलान
इस दौर में होती है ब-अंदाज़े-महब्बत
तकने लगे एहले-हवस इक दूसरे का मुंह
जब कूद गया आग में जां-बाज़े-महब्बत
रम करते हैं वो मुझ से तो मुझ को हो गिला क्यों
रम भी तो है इक सूरते अंदाज़े-महब्बत।