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ढल रहा है दिन / रविशंकर पाण्डेय
Kavita Kosh से
ढल रहा है दिन
पिघलते फौलाद जैसा
गल रहा है दिन,
ढल रहा है दिन!
गिर रहे
कतरे पिघल कर
ताल में,
आ न पाया
एक भी
क्यों जाल मेंय
हाथ
मछुआरा सरीखा
मल रहा है दिन!
दोपहर पर
हो गयी है
शाम तारी,
परिश्रम पर
कसैला
परिणाम भारीय
सभी मेहनतकशों को
कुछ
खल रहा है दिन!
लाल होकर
शाम होती
सुरमई है,
लगी चुभने
अकेलेपन की
सुई हैय
इस तरह से रोज
खुद को
छल रहा है दिन!