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ढही-ढही दीवार / दीनानाथ सुमित्र
Kavita Kosh से
मैं आदिकाल से ढही-ढही दीवार
अब कितनी बार संभालोगे मुझको
झंझावातों ने मुझे गिराया है
सूखे पत्तों-सी मेरी काया है
कबतक समर्थ दिखलाओगे मुझको
मैं आदिकाल से ढही-ढही दीवार
अब कितनी बार संभालोगे मुझको
मैं कंकर पत्थर का नन्हा टुकड़ा
मैं खंडित होने का भोगा दुखड़ा
पालना कहाँ? जो पालोगे मुझको
मैं आदिकाल से ढही-ढही दीवार
अब कितनी बार संभालोगे मुझको
है जन्म मरण अब तम के आँगन में
उर कभी नहीं होता है पाहन में
बोलो कैसे समझा लोगे मुझको
मैं आदिकाल से ढही-ढही दीवार
अब कितनी बार संभालोगे मुझको
तोड़क से जोड़क होगा बलशाली
पहुँचेगी जब तम में भी उजियाली
तब जाकर स्वर्ग बना लोगे मुझका
मैं आदिकाल से ढही-ढही दीवार
अब कितनी बार संभालोगे मुझकोे