भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ढहे मस्जिद कहीं, सच्चा पुजारी टूट जाता है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ढहे मस्जिद कहीं, सच्चा पुजारी टूट जाता है।
जले मंदिर कोई, पक्का नमाज़ी टूट जाता है।

यही सीखा है केवल आइने को देख इंसाँ ने,
यहाँ सच बोलता है जो, वो जल्दी टूट जाता है।

ये जूठन खा के पिंजरे में रहेगा उम्र भर लेकिन,
शिकारी पंख भी कतरे तो पंछी टूट जाता है।

दवा की और सेवा की ज़रूरत है इसे लेकिन,
दुआ करता न हो कोई तो रोगी टूट जाता है।

हजारों दुश्मनों को मार डाले बेहिचक लेकिन ,
लड़े अपने ही लोगों से तो फ़ौजी टूट जाता है।

ये मेरे देश की संसद या कोई घर है शीशे का,
जो बच्चों के भी पत्थर मारते ही टूट जाता है।