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ढाबा : आठ कविताएँ-3 / नीलेश रघुवंशी

कभी नहीं समझ पाए लोग
हैरत करते ही रह गए
देर रात तक ढाबे पर बैठने वाली लड़कियाँ करती हैं कैसे पढ़ाई

रिज़ल्ट खुलता
अच्छे नंबरों को देख तारीफ़ करते पिता से

पिता की आँखों में छिपा दर्द
हमेशा रहा उनकी आँखों से दूर
माँ कभी नहीं समझा पाई हमें अपने रीति-रिवाज़।

वह दिन
लगाती हैं जब लड़कियाँ हाथों में मेहंदी
हाथों में रहे हमारे राख़ से सने बर्तन
मेहंदी का रंग और बर्तनों की कालिख दोनों रहे एकमेक
सुबह से रात ढाबा ही रहा होली का रंग।