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ढीठ अँधेरे / प्रेरणा सारवान

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जाने कैसे आजाते हैं
रात पड़े
यह अंधे अँधेरे
आँगन में बतियाते रहते
ढीठों से यह पाँव पसारे
जब भी देखो
बैठे ही हैं
घर का हर इक
कोना घेरे
दरवाज़े पर
यूँ मिलते हैं
जैसे ताले देते पहरे
आ-आकर सब
लौट गए हैं
दीपक जुगनू
टूटे तारे
छुप -छुप कर
रोते हैं मुझ पर
इस दुनिया के
साँझ - सवेरे।