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ढूँढ़ती रही हूँ अब तक / अंजना वर्मा

Kavita Kosh से
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आज तक तो ढूँढ़ती ही रह गई वैसे शब्द
जो हो सकते थे तुम्हारी ममता और
छोह के बराबर
पर मिले नह़ीं

अब तक ढूँढ़ रही हूँ वे पेन्सिलें
जिनसे बना सकूँ माँ!
तुम्हारी मोटी-मोटी आँखें
पूरी दुनिया में जो थीं
अपनापन की पहली और सच्ची पहचान
अटूट प्यार के बोल छुपाये
तुम्हारे ओठ
बुखार में दवा की गोली
और पानी का गिलास थमाते हुए
पिता! तुम्हारे वे हाथ
रात-दिन अपने बच्चों के लिए व्यस्त
तुम दोनों की कायाएँ!

वे स्वेटर बुनते
फल काटते
और अपने हाथ का अनोखा स्वाद वाला
खाना परोसते
माँ! तुम्हारे दो कोमल हाथ
हम सबके भविष्य के सपने देखतीं
पिता! तुम्हारी कभी चमकतीं
तो कभी धुंध से भरी आँखें!
अपने जादुई शब्दों से
 हमारी बाँहों को पंखों में तब्दील करते
और हमारे लिए एक अछोर आकाश रचते
पिता तुम!

कहाँ मिलीं वैसी पेन्सिलें
जिनसे उकेर पाती यह सब?
अब तक खोजती रह गई वे रंग
जिनमें हल्का—सा भी
अक्स दिखाई देता तुम्हारा
अब करूँ क्या?
इसीलिए बैठी रह गई हूँ
हाथ में थिसारस, पेन्सिल और ब्रश लिये