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ढूँढ़ रही हूँ चन्दन / रेखा राजवंशी
Kavita Kosh से
दूर देश में
नए वेश में
पार समन्दर
इस विदेश में
ढूँढ़ रही
अपनापन साथी ।
बहुत भीड़ है
नया नीड़ है
काम बहुत है
शक्ति क्षीण है
ढूँढ़ रही
संजीवन साथी ।
कठिन घड़ी है
धूप कड़ी है
शाम अकेली
और बड़ी है
ढूँढ़ रही हूँ
चन्दन साथी ।