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ढूँढे से भी घर न निकले / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
तग़ाफुल* के बेरूह पैकर* न निकले
जिन्हें हमने चाहा वो पत्थर ना निकले
जो निकले तो कब? जब खुशी थी,न ग़म था
वो आँसू जो ग़म में भी अक्सर न निकले
जिन्हें कह के एक बार चुप लग गई थी
वो क़िस्से ज़बाँ से मुकर्रर* न निकले
भटकते फिरे हम तो कूचा-ब-कूचा
तुम्हारे ही दामन में पत्थर न निकले
वो पैकर जिन्हें हमने पूजा है बरसों
कभी अपने जिस्मों से बाहर न निकले
बयाबां में रौनक थी, वहशत घरों में
कभी हम तो ढूँढे से भी घर न निकले
1.तग़ाफुल--उदासीनता
2.पैकर---आकार
3.मुकरर्र--दोबारा