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ढूँढ रहा खोया अनुराग घर से बाहर तक / डी. एम. मिश्र
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ढूँढ रहा खोया अनुराग घर से बाहर तक
अपनी डफली - अपना राग घर से बाहर तक।
बेच दिया मुस्कान क्षणिक खुशियों की ख़ातिर
लगी है बाजा़रों में आग घर से बाहर तक।
देख पलटकर मगर कभी अपना भी दामन
खोज रहा औरों में दाग घर से बाहर तक।
तब जंगल में मंगल था अब घर भी जंगल
घूम रहे हैं काले नाग घर से बाहर तक।
सारी रात सितारों ने रखवाली की है
अब तेरी बारी है जाग घर से बाहर तक।