भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ढूंढ़ लेता है / अर्चना अर्चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तअज्जुब ये कि गुड़ में भी खटाई ढूंढ़ लेता है
वो मेरे हर हुनर में कुछ बुराई ढूंढ़ लेता है

मिरी हर नब्ज़, मेरे दर्द को पहचानता तो है
बड़ा ज़ालिम है पर कड़वी दवाई ढूंढ़ लेता है

बहुत चाहा किया मैंने कि हम हों काश हम लेकिन
मुहब्बत में भी वो अपनी-पराई ढूंढ़ लेता है

नहीं ऐसा कि उसमें ऐब ही ना हो ज़रा सा भी
सिफ़त पर ये ‘सफाई’ से ‘सफाई’ ढूंढ़ लेता है

उसे ‘कमज़र्फ’ समझूं या कि है दीवानगी उसकी
कि हर रिश्ते में मेरे आशनाई ढूंढ़ लेता है

इधर मैं हूं सिवा उसके नज़र कुछ भी नहीं आता
उधर वो हर हसीना में ख़ुदाई ढूंढ़ लेता है

किताब ए जुर्म लिखने को खिलाफत में वो ‘अर्चन’ की
ज़माने भर की सारी रौशनाई ढूंढ़ लेता है